तन्हा था विशाल सागर ,
एक रात, रूप
की गागर
छलकाती हुई चाँदनी ,
गाती हुई कोई रागिनी |
आई थी उधर से ,
निकला चन्दा जिधर से |
सागर
सहम सा गया
,
लहरों का दौर थम सा गया |
कौन है ये चंचला ?
जिसकी ओर ये मन चला |
बिल्कुल चाँदी के जैसी ,
क्या कहूँ के कैसी ?
लगती है
परी –सी
,
थोड़ी – थोड़ी डरी
सी |
सोचा सागर तो निष्प्राण है ,
इसके तन
मे नहीं जान है |
छुआ चाँदनी ने समुन्दर ,
चेतना आई उसके अन्दर |
कोमल
सा स्पर्श पाकर ,
सारे
कष्ट भुला कर |
सागर आनन्दित हुआ
,
रोम- रोम पुलकित
हुआ |
बोला- आई
हो कहाँ से ?
नयी हो इस जहाँ में ?
दोस्ती क्या मुझसे करोगी ?
कुछ पल
मेरे संग रहोगी ?
ऐसे खिल गयी चाँदनी,
कि छटा कुछ
ऐसी बनी
|
खिल गया सागर का मन
,
चाँदी हो गया उसका भी तन |
फिर चाँदनी ने नेत्र झुकाए ,
सर हिलाके,
पल के गिराए |
समझा दी नैनों की भाषा ,
कर दी व्यक्त अपनी अभिलाषा |
झूम उठा सागर का मन ,
आना
था ये भी क्षण |
मेरे उजाड़
जीवन में ,
कि बसेगी चाँदनी मन में |
हो गए दोनों एक उसी पल ,
लहरें ,
जो कि थी विकल |
उस समय, थम
सी गयी
,
मस्ती जहाँ में रम सी गयी |
बेआसरे
को सहारा मिला ,
भटके हुए को किनारा मिला |
मिला तब
सागर को चैन ,
आई , कैसी
ये रैन
?
मान
ले मेरी बात ,
तू न ख़त्म होना हे रात
!
अरे, रात होकर भी ,
रोशनी से दूर होकर भी |
तूने,
ये क्या किया ?
उजाला मुझको दिया |
अहसान तेरा, हे निशा
!
जो उपकार मुझपे किया |
अम्बर
हुआ प्रसन्न ,
खिल उठा धरती का मन |
देखा जो उनका
मिलन ,
शीतल हुए दोनों के नयन |
मगर.. शायद विधाता को ,
जग के
जन्म- दाता को |
ये सब मंज़ूर
न था ,
विरह दिन भी दूर न था
|
देता है जो सब को शक्ति ,
होती
है जिसकी भक्ति |
कष्ट भी
दे सकता है जो ,
नष्ट भी कर सकता है जो |
आ गया तब वह दिनकर ,
चली
उससे डरकर |
चाँदनी, सागर
को छोड़
,
प्रीत के बंधन को
तोड़ |
बोली- तुम्हे तो तपना है ,
कष्टों में जलना
है |
फिर मैं
क्यूँ
जलूं ?
कंही और क्यूँ न चलूँ ?
अवाक..
रह गया सागर ,
अरे ,
मुसीबत से डरकर |
मुझे छोड़
जाती हो
?
वादे सभी तोड़ जाती हो |
मेरी चाँदनी ! मत
जा ,
मुझ पर
कुछ तरस खा |
रहूँगा कैसे तेरे
बिना ?
जिऊँगा कैसे तेरे बिना ?
तेरा
वो स्पर्श शीतल ,
ठंडक पता
था मेरा जल |
चाँदनी ! निष्ठुर न बन ,
तेरे बिना मेरा
मन |
बिल्कुल मुरझा
जायेगा ,
मुझसे रहा न जायेगा |
मित्रता को
तोड़कर ,
विपत्ति में छोड़कर |
जो यूँ चले जातें हैं ,
कायर ही कहलाते हैं |
क्या तू इतनी कमज़ोर है ?
या तेरे मन में कुछ और है ?
इतनी
सी मुश्किल से ,
डरकर मेरे
दिल से |
दूर हुई जाती है ,
क्या लाज नही आती है ?
नही चाँदनी ! भयभीत होकर ,
मत
जा मुझे छोड़ कर |
कष्ट ये सदा
ना रहेंगे
,
सुख भी
हमको मिलेंगे |
सदा
कष्ट रहता
नहीं ,
क्या ज़माना कहता नहीं ?
चाँदनी ! कायर बनकर
,
थोड़े से कष्ट
से डरकर |
कर के बरबाद मुझे ,
क्या मिलेगा तुझे ?
बोली वो
फिर जाते हुए
,
व्यंग्य से मुस्काते हुए |
अरे सागर ! नादाँ बनकर ,
और,
तेरे संग रह
कर |
मुझे क्या
मिलेगा ?
अरे, तू
तो जलेगा |
मुझे
भी जलाएगा
,
अपने
संग रुलाएगा |
पहले भी
था तन्हाँ ,
कौन था यहाँ ?
कुछ
पल को आई थी ,
मार्ग शायद भूल आई थी |
अच्छा ! अब जा रही हूँ ,
और हाँ ! कह
रह रही हूँ |
अपना
ध्यान रखना
,
ना मुझे
याद करना |
हाय ! सागर बेचारा ,
किस्मत का मारा |
हो गया फिर मौन ,
धीरज,
बंधाये कौन ?
कौन दे उसको सहारा ?
जो किस्मत से हारा |
अरे सागर ! नासमझ !
अब
तो कुछ समझ |
तेज़ धूप में भला ,
तू अकेला ही
जला |
अकेला
सदा रहा
,
सब कुछ
सहता रहा
|
अब भी सह ले ,
पहले की तरह रह ले |
क्या तू जानता नहीं ?
सब
जाते है
वहीँ |
जहाँ उन्हें
खुशियाँ मिले ,
दुनिया का हर सुख मिले |
ऐसा
क्या तेरे पास था ?
जो
उसे दे देता |
वो सदा खुश रहेगी ,
दूर दुखों से
रहेगी |
यही ख़ुशी क्या कम है ?
फिर बता क्या गम है ?
चाँदनी न तेरी कभी थी ,
कुछ पल
की सखी थी |
छोड़,
मत कर छोह ,
तोड़
दे अपना मोह
|
उसे न अब याद कर
,
वो न आएगी अब लौटकर …………….
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