दीया हूँ मै

बहुत जला हूँ मैं ,
तभी तो तुम देख पाए..
वो राह ,
जिस पर चलकर..
पायी मन्जिल तुमने |
जीता दिलों को तुमने ||
तेल मेरा था,
और बाती भी मेरी..
और तपन  !!!!!
वो भी मैंने ही  तो सही..
लेकिन पथ पर तुम चले |
वो भी बिना तपे, बिना जले ||
जाओ पथिक ,
जाओ तुम अब ..
आगे चलोगे तो मिलेंगें,
और भी दीये मुझ जैसे ..
जो पूरे करेंगें तुम्हारी चाह |
दिखाएंगें तुम्हें आगे की राह ||
यहाँ रहकर ,
लड़कर पवन झकोरों से .
अभी तो ,
और जलना है मुझे ..
सदा से ऐसे ही जीया हूँ मैं |
क्योंकि दीया हूँ मैं ……….
             -जयकुमार

दे दो रँग मुझे



,


दे दो रँग मुझे,
बुन लूँ सपने रँग-बिरंगे
सजा  लूँ अपना  जीवन ,
रँग लूँ अपनी दुनिया
रँग डालूं अपना तन-मन

दे दो रँग मुझे
खींच  लूँ आशाओं की
कोई  रँग-बिरँगी तस्वीर
मिले जो रँग तुम्हारे
रँग जाये मेरी तकदीर

दे दो रँग मुझे
रंगीला  हो जाये
मेरा भी  प्रभात
रंगीन हों मेरे दिन
और रँगमय  मेरी रात.......

- जय कुमार 

अभिलाषा


  अभिलाषा

हे अनन्त !
कराकर मुक्त अन्तसे,
खींच लो अपनी ओर.
ले   चलो   उस   छोर,
जहाँ अन्त का भय न हो,
आदि का विस्मय न हो.

हे ज्योतिपुंज !
कब    तक   रखोगे?
इस भयावह तिमिर में,
ले चलो उस शिविर में.
जहाँ प्रकाश ही प्रकाश हो,
चित्त न कभी उदास हो.

हे दिव्यरूप !
हटा दो मिथ्या का आवरण,
खिल जाए ज्ञान की धूप,
दिखा दो सत्य का रूप.
स्वयं को भूल जाऊँ,
तुम से एकरूप हो जाऊँ...